Monday April 29, 2024
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नवदुर्गा मन्दिर, बौराड़ी, नईटिहरी टिहरी गढ़वाल

नवदुर्गा मन्दिर, बौराड़ी, नईटिहरी टिहरी गढ़वाल
नवदुर्गा मन्दिर, बौराड़ी, नईटिहरी टिहरी गढ़वालनवदुर्गा मन्दिर, बौराड़ी, नईटिहरी टिहरी गढ़वालनवदुर्गा मन्दिर, बौराड़ी, नईटिहरी टिहरी गढ़वाल
नवदुर्गा मन्दिर, बौराड़ी नईटिहरी

नई टिहरी नगर के मध्य में स्थित नवदुर्गा मन्दिर नगर के सभी मन्दिरों मे सबसे भव्य और विशाल है। पुरानी टिहरी में अन्य मन्दिरों की भांति श्रीबदरीनाथ-केदारनाथ मन्दिर भी राजा के अधीनस्थ था। टिहरी बांध परियोजना के कारण जब नगर का विस्थापन होने लगा तो मन्दिरों को भी विस्थापित किया जाने लगा। इस क्रम में नगर के सभी मन्दिरों की नई टिहरी नगर में स्थापना की जाने लगी। अन्य मन्दिरों की भांति श्रीबदरीनाथ-केदारनाथ मन्दिर के लिये भी नई टिहरी नगर में एक स्थान पर मन्दिर की स्थापना हेतु निर्माण कार्य शुरू कर दिया गया, परन्तु नगर के कुछ बुद्धिजीवियों के अनुसार श्रीबदरीनाथ-केदारनाथ मन्दिर की स्थापना किसी ऐसे स्थान पर की जानी चाहिये थी जहां कि नदी पास में हो जो कि नईटिहरी नगर में संभव नहीं था। अत: उपजते हुये मतभेदों को देखकर तत्कालीन राजा माननीय स्वर्गीय श्री मानवेन्द्र शाह जी की आज्ञानुसार टिहरी नगर के श्रीबदरीनाथ-केदारनाथ मन्दिर को भूपतवाला, हरिद्वार में स्थापित कर दिया गया। क्योकिं मन्दिर का निर्माण कार्य शुरू कर दिया गया था और नगर में कोई भी दुर्गा मन्दिर नहीं था इसलिये मन्दिर की निर्माणकर्ता इकाई पुनर्वास (सिंचाई विभाग खण्ड-२२) ने निर्णय लिया कि मन्दिर का निर्माण कार्य पूरा कर इसे नवदुर्गा मन्दिर के नाम से बनाया जाय।

संवत २०६३ के चैत्र मास के शुक्लपक्ष की प्रथमा (बृहस्पतिवार, दिनांक ३० मार्च २००६) को मन्दिर में मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा की गई। मन्दिर के अन्दर तीन गर्भ-गृह हैं जो कि संभवतया पहले श्रीबदरीनाथ, केदारनाथ और तुंगनाथ की मूर्तियों के लिये बनवाये गये थे, उनमें अब महादुर्गा, महालक्ष्मी, महासरस्वती की भव्य प्रतिमायें विराजमान हैं। मन्दिर मे प्रवेश करते ही सामने एक बड़ा हाल दिखता है, जिसके वाम पार्श्व में क्रमश: शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघण्टा, कूष्माण्डा तथा दाहिने पार्श्व में स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी की प्रतिमायें विराजमान हैं। मन्दिर का वास्तु आधुनिक मन्दिरों की तरह ही है तथा भव्यता देखते ही बनती है। उत्तर भारत के मन्दिरों में संभवतया यह इस तरह का पहला मन्दिर होगा जहां माता के नौ रूपों को एक साथ स्थापित किया है।

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी ।
तृतीयं चन्द्रघंटेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ।।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च ।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः ।।


प्रथम दुर्गा शैलपुत्री
पर्वतराज हिमालय की पुत्री पार्वती के स्वरूप में साक्षात शैलपुत्री की पूजा देवी के मंडपों में प्रथम नवरात्र के दिन होती है। इसके एक हाथ में त्रिशूल , दूसरे हाथ में कमल का पुष्प है। यह नंदी नामक वृषभ पर सवार संपूर्ण हिमालय पर विराजमान है। शैलराज हिमालय की कन्या होने के कारण नवदुर्गा का सर्वप्रथम स्वरूप शैलपुत्री कहलाया है। यह वृषभ वाहन शिवा का ही स्वरूप है। घोर तपस्चर्या करने वाली शैलपुत्री समस्त वन्य जीव जंतुओं की रक्षक भी हैं। शैलपुत्री के अधीन वे समस्त भक्तगण आते हैं, जो योग साधना तप और अनुष्ठान के लिए पर्वतराज हिमालय की शरण लेते हैं। जम्मू - कश्मीर से लेकर हिमांचल पूर्वांचल नेपाल और पूर्वोत्तर पर्वतों में शैलपुत्री का वर्चस्व रहता है। आज भी भारत के उत्तरी प्रांतों में जहां-जहां भी हल्की और दुर्गम स्थली की आबादी है, वहां पर शैलपुत्री के मंदिरों की पहले स्थापना की जाती है, उसके बाद वह स्थान हमेशा के लिए सुरक्षित मान लिया जाता है! कुछ अंतराल के बाद बीहड़ से बीहड़ स्थान भी शैलपुत्री की स्थापना के बाद एक सम्पन्न स्थल बल जाता है।

द्वितीय ब्रह्मचारिणी
नवदुर्गाओं में दूसरी दुर्गा का नाम ब्रह्मचारिणी है। इसकी पूजा-अर्चना द्वितीया तिथि के दौरान की जाती है। सच्चिदानंदमय ब्रह्मस्वरूप की प्राप्ति कराना आदि विद्याओं की ज्ञाता ब्रह्मचारिणी इस लोक के समस्त चर और अचर जगत की विद्याओं की ज्ञाता है। इसका स्वरूप सफेद वस्त्र में लिपटी हुई कन्या के रूप में है, जिसके एक हाथ में अष्टदल की माला और दूसरे हाथ में कमंडल विराजमान है। यह अक्षयमाला और कमंडल धारिणी ब्रह्मचारिणी नामक दुर्गा शास्त्रों के ज्ञान और निगमागम तंत्र-मंत्र आदि से संयुक्त है। अपने भक्तों को यह अपनी सर्वज्ञ संपन्नन विद्या देकर विजयी बनाती है ।

तृतीय चन्द्रघंटा
शक्ति के रूप में विराजमान चन्द्रघंटा मस्तक पर चंद्रमा को धारण किए हुए है। नवरात्र के तीसरे दिन इनकी पूजा-अर्चना भक्तों को जन्म जन्मांतर के कष्टों से मुक्त कर इहलोक और परलोक में कल्याण प्रदान करती है। देवी स्वरूप चंद्रघंटा बाघ की सवारी करती है। इसके दस हाथों में कमल, धनुष-बाण, कमंडल, तलवार, त्रिशूल और गदा जैसे अस्त्र हैं। इसके कंठ में सफेद पुष्प की माला और रत्नजड़ित मुकुट शीर्ष पर विराजमान है। अपने दोनों हाथों से यह साधकों को चिरायु आरोग्य और सुख सम्पदा का वरदान देती है।

चतुर्थ कूष्मांडा
त्रिविध तापयुत संसार में कुत्सित ऊष्मा को हरने वाली देवी के उदर में पिंड और ब्रह्मांड के समस्त जठर और अग्नि का स्वरूप समाहित है। कूष्माण्डा देवी ही ब्रह्मांड से पिण्ड को उत्पन्न करने वाली दुर्गा कहलाती है। दुर्गा माता का यह चौथा स्वरूप है। इसलिए नवरात्रि में चतुर्थी तिथि को इनकी पूजा होती है। लौकिक स्वरूप में यह बाघ की सवारी करती हुई अष्टभुजाधारी मस्तक पर रत्नजड़ित स्वर्ण मुकुट वाली एक हाथ में कमंडल और दूसरे हाथ में कलश लिए हुए उज्जवल स्वरूप की दुर्गा है। इसके अन्य हाथों में कमल, सुदर्शन, चक्र, गदा, धनुष-बाण और अक्षमाला विराजमान है। इन सब उपकरणों को धारण करने वाली कूष्मांडा अपने भक्तों को रोग शोक और विनाश से मुक्त करके आयु यश बल और बुद्धि प्रदान करती है।

पंचम स्कन्दमाता
श्रुति और समृद्धि से युक्त छान्दोग्य उपनिषद के प्रवर्तक सनत्कुमार की माता भगवती का नाम स्कन्द है। अतः उनकी माता होने से कल्याणकारी शक्ति की अधिष्ठात्री देवी को पांचवीं दुर्गा स्कन्दमाता के रूप में पूजा जाता है। नवरात्रि में इसकी पूजा-अर्चना का विशेष विधान है। अपने सांसारिक स्वरूप में यह देवी सिंह की सवारी पर विराजमान है तथा चतुर्भज इस दुर्गा का स्वरूप दोनों हाथों में कमलदल लिए हुए और एक हाथ से अपनी गोद में ब्रह्मस्वरूप सनत्कुमार को थामे हुए है। यह दुर्गा समस्त ज्ञान-विज्ञान, धर्म-कर्म और कृषि उद्योग सहित पंच आवरणों से समाहित विद्यावाहिनी दुर्गा भी कहलाती है।

षष्टम कात्यायनी
यह दुर्गा देवताओं के और ऋषियों के कार्यों को सिद्ध करने लिए महर्षि कात्यायन के आश्रम में प्रकट हुई महर्षि ने उन्हें अपनी कन्या के स्वरूप पालन पोषण किया साक्षात दुर्गा स्वरूप इस छठी देवी का नाम कात्यायनी पड़ गया। यह दानवों और असुरों तथा पापी जीवधारियों का नाश करने वाली देवी भी कहलाती है। वैदिक युग में यह ऋषिमुनियों को कष्ट देने वाले प्राणघातक दानवों को अपने तेज से ही नष्ट कर देती थी। सांसारिक स्वरूप में यह शेर यानी सिंह पर सवार चार भुजाओं वाली सुसज्जित आभा मंडल युक्त देवी कहलाती है। इसके बाएं हाथ में कमल और तलवार दाहिने हाथ में स्वस्तिक और आशीर्वाद की मुद्रा अंकित है।

सप्तम कालरात्रि
अपने महाविनाशक गुणों से शत्रु एवं दुष्ट लोगों का संहार करने वाली सातवीं दुर्गा का नाम कालरात्रि है। विनाशिका होने के कारण इसका नाम कालरात्रि पड़ गया। आकृति और सांसारिक स्वरूप में यह कालिका का अवतार यानी काले रंग रूप की अपनी विशाल केश राशि को फैलाकर चार भुजाओं वाली दुर्गा है, जो वर्ण और वेश में अर्द्धनारीश्वर शिव की तांडव मुद्रा में नजर आती है। इसकी आंखों से अग्नि की वर्षा होती है। एक हाथ से शत्रुओं की गर्दन पकड़कर दूसरे हाथ में खड़क तलवार से युद्ध स्थल में उनका नाश करने वाली कालरात्रि सचमुच ही अपने विकट रूप में नजर आती है। इसकी सवारी गंधर्व यानी गधा है, जो समस्त जीवजंतुओं में सबसे अधिक परिश्रमी और निर्भय होकर अपनी अधिष्ठात्री देवी कालरात्रि को लेकर इस संसार में विचरण कर रहा है। कालरात्रि की पूजा नवरात्र के सातवें दिन की जाती है। इसे कराली भयंकरी कृष्णा और काली माता का स्वरूप भी प्रदान है, लेकिन भक्तों पर उनकी असीम कृपा रहती है और उन्हें वह हर तरफ से रक्षा ही प्रदान करती है।

अष्टम महागौरी
नवरात्र के आठवें दिन आठवीं दुर्गा महागौरी की पूजा-अर्चना और स्थापना की जाती है। अपनी तपस्या के द्वारा इन्होंने गौर वर्ण प्राप्त किया था। अतः इन्हें उज्जवल स्वरूप की महागौरी धन, ऐश्वर्य, पदायिनी, चैतन्यमयी, त्रैलोक्य पूज्य मंगला शारिरिक, मानसिक और सांसारिक ताप का हरण करने वाली माता महागौरी का नाम दिया गया है। उत्पत्ति के समय यह आठ वर्ष की आयु की होने के कारण नवरात्र के आठवें दिन पूजने से सदा सुख और शान्ति देती है। अपने भक्तों के लिए यह अन्नपूर्णा स्वरूप है। इसीलिए इसके भक्त अष्टमी के दिन कन्याओं का पूजन और सम्मान करते हुए महागौरी की कृपा प्राप्त करते हैं। यह धन-वैभव और सुख-शान्ति की अधिष्ठात्री देवी है। सांसारिक रूप में इसका स्वरूप बहुत ही उज्जवल, कोमल, सफेदवर्ण तथा सफेद वस्त्रधारी चतुर्भुज युक्त एक हाथ में त्रिशूल, दूसरे हाथ में डमरू लिए हुए गायन संगीत की प्रिय देवी है, जो सफेद वृषभ यानि बैल पर सवार है।

नवम सिद्धिदात्री
नवदुर्गाओं में सबसे श्रेष्ठ और सिद्धि और मोक्ष देने वाली दुर्गा को सिद्धिदात्री कहा जाता है। यह देवी भगवान विष्णु की प्रियतमा लक्ष्मी के समान कमल के आसन पर विराजमान है और हाथों में कमल शंख गदा सुदर्शन चक्र धारण किए हुए है। देव यक्ष किन्नर दानव ऋषि-मुनि साधक विप्र और संसारी जन सिद्धिदात्री की पूजा नवरात्र के नवें दिन करके अपनी जीवन में यश बल और धन की प्राप्ति करते हैं। सिद्धिदात्री देवी उन सभी महाविद्याओं की अष्ट सिद्धियां भी प्रदान करती हैं, जो सच्चे हृदय से उनके लिए आराधना करता है। नवें दिन सिद्धिदात्री की पूजा उपासना करने के लिए नवाहन का प्रसाद और नवरस युक्त भोजन तथा नौ प्रकार के फल-फूल आदि का अर्पण करके जो भक्त नवरात्र का समापन करते हैं, उनको इस संसार में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है। सिद्धिदात्री देवी सरस्वती का भी स्वरूप है, जो सफेद वस्त्रालंकार से युक्त महाज्ञान और मधुर स्वर से अपने भक्तों को सम्मोहित करती है। नवें दिन सभी नवदुर्गाओं के सांसारिक स्वरूप को विसर्जन की परम्परा भी गंगा, नर्मदा, कावेरी या समुद्र जल में विसर्जित करने की परम्परा भी है। नवदुर्गा के स्वरूप में साक्षात पार्वती और भगवती विघ्नविनाशक गणपति को भी सम्मानित किया जाता है।

मन्दिर के पुजारी श्री विष्णुप्रसाद नौटियाल जी के अनुसार वे इस मन्दिर की प्राण-प्रतिष्ठा के समय से ही नियमित रूप से मन्दिर की पूजा-पाठ कर रहे हैं। मन्दिर की व्यवस्था प्रबन्धन इस समय बद्री-केदार मन्दिर समिति के द्वारा किया जा रहा है। मन्दिर समिति की तरफ से श्री विष्णुप्रसाद नौटियाल जी इस समय पुजारी के पद पर तथा श्री विवेक थपलियाल जी कार्य-प्रभारी के पद पर कार्यरत है। निर्माण के समय से मन्दिर का कार्यभार, व्यवस्था प्रबंधन सितंबर २००९ तक मन्दिर की निर्माणकर्ता इकाई पुनर्वास (सिंचाई विभाग खण्ड-२२) के ही पास था। सितंबर २००९ में मन्दिर की व्यवस्था प्रबन्धन नगरपालिका नईटिहरी के सुपुर्द कर दिया गया। नगरपालिका द्वारा सही व्यवस्था-प्रबन्धन ना हो पाने के कारण पुनर्वास निदेशक टिहरी बांध परियोजना द्वारा नवदुर्गा मन्दिर परिसर बौराड़ी, नईटिहरी का हस्तान्तरण बुधवार दिनांक ३१ मार्च २०१० को श्रीबदरीनाथ-श्रीकेदारनाथ मन्दिर समिति को विधिवत कर दिया गया। इस पुनीत कार्य मे श्री राजेन्द्र प्रसाद डबराल जी माननीय सदस्य श्रीबदरीनाथ-श्रीकेदारनाथ मन्दिर समिति का विशेष योगदान रहा। मन्दिर परिसर में इस समय श्रद्धालु यात्रियों के रूकने हेतु १८ कमरों की एक धर्मशाला, १ डारमेट्री, १ पुजारी आवास, १ स्टोर, १ हाल (जो कि इस समय गीता ज्ञान सत्संग के पास है) तथा २ संग्रहालय हैं जिनमें कि पुरानी टिहरी से जुड़ी यादों को संजोकर रखा गया है।



फोटो गैलरी : नवदुर्गा मन्दिर, बौराड़ी, नईटिहरी टिहरी गढ़वाल

Comments

1

अनिल शर्मा | March 09, 2014
अतुलनीय.... अति भव्य मन्दिर... जय भारत जय उत्तराखण्ड

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